छायावाद तथा उत्तरछायावादी काव्य प्रवृत्तियाँ एवं प्रमुख कवियों की समीक्षा

Authors

  • शशिरंजन स्नातकोत्तर, हिंदी विभाग, लाना०मि०वि०वि०,दरभंगा

Abstract

द्विवदी युग’ के बाद हिन्दी में जो नयी काव्य धारा प्रवाहित हुई, उसे छायावाद की संज्ञा से अभिहित किया गया है। छायावादी काव्य की रचना 'द्विवेदी युग के अन्तिम चरण में ही प्रारम्भ हो गई थी और आज भी हो रही है, परन्तु छायावाका चरमोत्कर्ष-काल दो विश्व युद्धों के बीच का समय सन् 1920 से सन् 1936 तक है। छायावाद-युग ड़ी बोली काव्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। सन् 1920 तक हिन्दी में निः स्सन्देह 'छायावाद' की संज्ञा प्रचलित हो चुकी थी, क्योंकि सी र्ष 'श्री शारदा' पत्रिका में मुकुटधर पाण्डेय की 'हिन्दी में छायावाद' शीर्षक चार निबन्धों की एक लेखमाला प्रकाशित हुई थी। सन् 1921 में इसी शीर्षक से श्री सुशील कुमार का एक लेख 'सरस्वती' पत्रिका में पा था जिसमें छायावादी कविता को 'टैगोर-स्कूल' की चित्रकला के समास्पष्ट बताया गया था। सम्भवतः विद्वानों ने छायावादी विता में काव्य की 'काया नहीं 'छाया' देखी थी और उस काव्य की अस्पष्टता (छाया) का पहास करने के लिए ही उसे 'छायावाद' नाम दे दिया था।

मुख्य शब्द:- वैश्विक, भाषा, साहित्य, हिंदी, आधुनिकता, भूमंडलीक, माध्यम 

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Published

2022-07-02

How to Cite

शशिरंजन. (2022). छायावाद तथा उत्तरछायावादी काव्य प्रवृत्तियाँ एवं प्रमुख कवियों की समीक्षा . JOURNAL OF INDUSTRIAL RELATIONSHIP CORPORATE GOVERNANCE AND MANAGEMENT EXPLORER, 5(1). Retrieved from http://journal.swaranjalipublication.co.in/index.php/JIRCGME/article/view/252

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