रविंद्र नाथ टैगोर के शैक्षणिक विचारः एक अध्ययन
Abstract
धर्मनिष्ठ माता-पिता की सन्तान और उसका संसर्ग होने से रवीन्द्र नाथ टैगोर भी धार्मिक भावना से भरे थे। परन्तु वे बुद्धिवादी थे। अतः उन्होंने कहा कि धर्म के लिये उचित एक स्थान और एक उचित वातावरण आवश्यक है जो जीवन को अनुप्रामाणित कर दे और आत्मा को ऊँचा उठा दे। उनके विचार में धर्म असीम के प्रति अधिक उत्कृष्ठ इच्छा है, असीम की आनन्दमयी अनुभूति है। इसलिये हिन्दू तथा अन्य सभी धर्मों की कटु आलोचना की है। जहाँ वे तर्कहीनता पर आधारित अंधविश्वास क्रिया-कर्म, अथवा विभिन्न प्रकार के आडम्बरों पर बल देते हैं। उन्होंने धर्म शिक्षा लेख में संकेत किया है कि धर्म के लिये न तो मन्दिरों की न ब्राहमण और कर्म की जरूरत है। प्रकृति मानवीय भावना ही हमारे मंदिर है और स्वार्थ रहित अच्छे कार्य हमारी पूजा है, क्योंकि सच्चा धर्म तो अन्तस में होता है और वहीं बढ़ता है टैगोर ने अपने रिलीजन ऑफ मैन ने लिखा है कि सच्ची धार्मिकता तो मनुष्य को मनुष्य के रूप में सहर्श मानने के मूल्य में होती है। गुरूदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर जी ने पाठ्यक्रम के सन्दर्भ में व्यवस्थित विचार नही दिये पर उनकी रचनाओं एवं कार्यो के आधार पर यह कहा जा सकता हैं कि वे पाठ्यक्रम को विस्तृत बनाने के पक्षधर थे ताकि जीवन के सभी पक्षों का विकास हो सकें। वें मानवीय एवं सांस्कृतिक विषयों को महत्वूपर्ण स्थान देतें हैं। विश्व भारती में इतिहास, भूगोल, विज्ञान, साहित्य, प्रकृति अध्ययन आदि की शिक्षा तो दी ही जाती हैं, साथ ही अभिनय क्षेत्रीय अध्ययन, भ्रमण, ड्राइंग, मौलिक रचना, संगीत, नृत्य आदि की भी शिक्षा दी जाती हैं।